आज
जब लोग हो हल्ले में मस्त हैं
तब मैं कविता लिख रहा हूं।
कल
जब लोग होली जला रहे थे
मुझे लगा था कि मेरे मरे हुए मन की
अंत्येष्टि की जा रही है।
आज
जब लोग रंग गुलाल लगा रहे हैं
मुझे लग रहा है
कि लोग
मेरी मृत्यु का जश्न मना रहे हैं।
सचमुच मैं मर गया हूँ
क्योंकि जमाने की असलियत से
डर गया हूँ।
जब कोई मेरे रंग लगाता है
मैं आतंकित हो जाता हूँ
कि कहीं उसके हाथ में
खून तो नहीं लगा है।
बरसों कोशिश की है
पर अब तक
यह डर नहीं भागा है।
अपनी तमाम उम्र
मैंने बहुत धोखा खाया है
जिस हाथ पर खून समझा, वहाँ रंग
और जहाँ रंग समझा, वहाँ खून पाया है।
जब लोग गले मिलते है
तो मैं काँपता हूँ
कोशिश करके उनका
इरादा भांपता हूँ
कहीं कोई गले मिल-मिलकर
मेरी आस्तीन में तो नहीं घुस रहा है
क्योंकि हर बार मुझे लगा
केवल आस्तीन का आदमी ही
मुझे डस रहा है।
मैं कोशिश में हूँ कि
लोगों का इरादा जान सकूं
समय रहते
उनका असली चेहरा पहचान सकूं
पर लोग !
होली तो क्या, सारे साल ही
किसी न किसी रंग में रंगे रहते हैं
मुखौटों से अपने को
ढके रहते हैं।
जब लोग
ढप-ताल पर नाचते हैं
तो मुझे डर नहीं लगता।
क्योंकि नाचते- गाते- खाते वक्त
आदमी इतना मस्त होता है
कि उसे दूसरा कोई नहीं दिखता
वह अपने आप में व्यस्त होता है।
पर मैं नाचता नहीं हूँ उनके साथ
क्योंकि नाचने से पहले
रंग लगवाने- लगाने
गले मिलने- मिलाने
की रस्म अदायगी के दौर से
गुजरना पड़ता है
जिससे कि मैं आतंकित हूँ
मुझे डर लगता है।
इसलिये आज जब लोग
हो- हल्ले में मस्त हैं तब
मैं कविता लिख रहा हूँ।
- – अनिल लोढ़ा