सुनो ,
जवान लड़की के विधवा हो जाने पर जो मन में तुम चिंता ना करो …
मैं हूं ना वाला ख्याल लाते हो ।
आंखों ही आंखों में पूरा उसका शरीर टटोल जाते हो।
रामाशंकर के जिंदा होने पर जो निगाहों पर पर्दे का ढोंग करते थे ।
वह पर्दा जाते ही उसके झट हटाते हो ।
और फिर… और फिर मैं हूं ना वाला मरहम उसके जख्मों पर लगाते हो।।
विधवा के टूटे ख्वाबों पर अपने अरमानों की सेज सजाते हो ।
तुम उसकी सफेद साड़ी पर अपनी मक्कारी क घिनौनेे रंग सजाते हो ।।
और फिर और फिर मैं हूं ना वाला मरहम उसके जख्मों पर लगाते हो।
जिन मजबूत कंधों पर वह लड़की इतराती थी दाते पीस पीस कर मन ही मन मुस्काते ‘ अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे ‘ वाली भाव अपने मन में लाते हो ।।
और फिर और फिर मैं हूं ना वाला मरहम उसके जख्मों पर लगाते हो।
बड़ी ही धैर्य के साथ आराम से छोटे-छोटे कामों से उसके दिल में अपनी जगह बनाते हो।
फिर मौका देखकर अपनी भूख को सच्चा प्यार वाला चोला पहना कर उसके कपड़े हटाते हो।
और फिर और फिर वही मैं हूं ना वाला मरहम उसके जख्मों पर लगाते रहो।
अपनी मक्कारी भरी आंखों में झूठा वाला आंसू लाते हो ।
तुम्हारे हर गम को मैं ही हर लूंगा वाला विश्वास दिलाते हो।
बाद उसको गले लगा कर इधर-उधर हाथ फिराते हो ।
और फिर वही मैं हूं ना वाला मरहम उसके जख्मों पर लगाते हो।
छोटी चॉकलेट और एक चिप्स के पैकेट से उसके बच्चे को फुसलाते हो ।
यह बच्चे तुम्हारी जान है ऐसा ढोंग रचाते हो।
अपने इस सस्ती सोच से उसके दिल में अपनी जगह बनाते हो ।
और फिर वही मैं हूं ना वाला मरहम उसके जख्मों पर लगाते हो।
इस किरदार से पर्दा उठते ही …
मक्कारी वाले किरदार से पर्दा उठते ही …
साली विधवा है, फिर बदचलन का भी आरोप लगाते हो गा – गा कर सबको महफिलों में सुनाते हो ।
और फिर एक नए शिकार की तलाश में निकल जाते हो।
हर विधवा को…
फिर वही मैं हूं ना वाला मरहम उसके जख्मों पर लगाते हो।
जो कभी संग प्रीत के संग सपने संजोया करती थी,
जो चहरे पर मुसकान लिए रिश्तों में प्रेम पिरोया करती थी,
जो करती सास ससुर की सेवा
जो ननदों का संग साथ दे दिया करती थी,
देख रे ज़माना तेरी वीरांगना आज ख़ुद से ही हारी है,
जिन हाथों से कभी श्रृंगार किया करती थी ,
आज उन्हीं हाथों ने मंगलसूत्र उतारी है।
भाग्य भी न जाने यह कैसा खेल खेलवाता है,
जब अलग ही करना होता है किसी दंपति को
तो फिर क्यूं जोड़ों का मेल करवाता है।
क्यों किसी को विधवा बना छोड़ देता है बीच राहों मे
आख़िर क्यों
हस्ती खेलती जीवन नय्या अब भटके कारागारों में।
यह कैसा मेरा देश है जहां सिखाया जाता है,
की हर स्त्रियों का सम्मान करो
मगर जब वही विधवा हो जाय
तो भरी सभा मे उसका अपमान करो।
समाज के बड़े पदों के संग मिल कर उसे ताने दो,
छूकर उसके जिस्म को उसे सराहने के बहाने दो,
सभा में नारी शक्ति है मंच पर खड़ा सबको बताने दो,
और घर जाकर
रुक जा वहीं आज एक विधवा छुआ गई पहले मुझे नहाने दो।
क्या यही है हमारी संस्कृति क्या यही मानवता है,
किसी बेगुनाह को प्रताड़ित करना क्या नहीं दानवता है।
सोचो कितनी वेदना कितना करुण होगा उसमे
जिस देवी ने मांग से सौभाग्य उतारी है,
हां रे ज़माना आज तेरी वीरांगना तेरी ही वजह से हारी है।
कुछ लोगों की मनोधारणा यूं है की
यदि विधवा
किसी सैनिक या क्रांतिकारी की हुई तो उनका सत्कार करेंगे,
यदि किसी और की हुई तो उन पर दुराचार करेंगे।
विधवाओं का जब तक पाखंड न फैले तब तक
हम धड़ल्ले से अंधविश्वास का प्रचार करेंगे,
और हां
माना ज़माना बदल गया है
मगर हम ना के बराबर हि इस विषय पर अब विचार करेंगे।
जस्न मनाओ
जीत गए तुम अपने आडंबर मे
अब ना तो उसके पास चिर है ना ही चेतना है,
ना उसका दर्द ना चीख ना ही वह चीरती वेदना है।
दुनिया में एक सवाल बनकर आई थी संग ले गई लाचारी रे,
हां रे ज़माना आज तेरी वीरांगना तेरी ही वजह से हारी है।
जीवन के इस शून्य सदन में
जलता है यौवन-प्रदीप; हँसता तारा एकान्त गगन में।
जीवन के इस शून्य सदन में।
पल्लव रहा शुष्क तरु पर हिल,
मरु में फूल चमकता झिलमिल,
ऊषा की मुस्कान नहीं, यह संध्या विहँस रही उपवन में।
जीवन के इस शून्य सदन में।
उजड़े घर, निर्जन खँडहर में
कंचन-थाल लिये निज कर में
रूप-आरती सजा खड़ी किस सुन्दर के स्वागत-चिन्तन में?
जीवन के इस शून्य सदन में।
सूखी-सी सरिता के तट पर
देवि! खड़ी सूने पनघट पर
अपने प्रिय-दर्शन अतीत की कविता बाँच रही हो मन में?
जीवन के इस शून्य सदन में।
नव यौवन की चिता बनाकर,
आशा-कलियों को स्वाहा कर
भग्न मनोरथ की समाधि पर तपस्विनी बैठी निर्जन में।
जीवन के इस शून्य सदन में।